Supreme Court Decision : सुप्रीम कोर्ट ने पिछले दिन तलाकशुदा मुस्लिम महिलाओं के गुजारे भत्ता के हक में निर्णय दिया। कोर्ट ने कहा कि सीआरपीसी की धारा 125 के तहत मुस्लिम महिलाओं को भी पति से गुजारा भत्ता मिलना चाहिए। ये सुप्रीम कोर्ट का फैसला 23 अप्रैल 1985 में शाहबानो मामले (Shah Bano Case) की तरह ही है।
हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण निर्णय (Supreme Court Decision) दिया, जिसमें तलाकशुदा मुस्लिम महिलाओं को गुजारे भत्ता लेने का हक दिया गया था। कोर्ट ने कहा कि सीआरपीसी की धारा 125 के तहत मुस्लिम महिलाओं को भी पति से गुजारा भत्ता मिलना चाहिए।
ये निर्णय जस्टिस बीवी नागरत्ना और जस्टिस ऑगस्टिन जॉर्ज मसीह की बेंच ने किया है। यद्यपि दोनों जजों ने अलग-अलग तरह से फैसला सुनाया, दोनों की राय एक थी। दोनों ने कहा कि तलाकशुदा मुस्लिम महिलाएं भी सीआरपीसी की धारा 125 के तहत पति के खिलाफ केस कर सकती हैं ताकि वे गुजारा भत्ता पा सकें।
ये सुप्रीम कोर्ट का निर्णय (Supreme Court Decision) ठीक वैसा ही है जैसा 23 अप्रैल 1985 को शाहबानो मामले में हुआ था।
आइए जानें, शाहबानो मामला क्या है और राजीव गांधी ने फैसला क्यों बदल दिया था।
Supreme Court Decision: शाहबानो मामला क्या है?
दरअसल, इंदौर की एक तलाकशुदा मुस्लिम महिला शाहबानो ने 1985 में सुप्रीम कोर्ट में केस करके गुजारा भत्ता मांगा था। शाहबानो के पक्ष में सुप्रीम कोर्ट ने फैसला (Supreme Court decision) दिया कि उनके पति मोहम्मद अहमद खान को सीआरपीसी की धारा 125 के तहत गुजारा भत्ता मिलना चाहिए।
राजीव गांधी ने कट्टरपंथियों के विरोध के सामने झुकना मंजूर किया
इसके बावजूद, मुस्लिम समाज ने इस फैसले का विरोध शुरू किया। राजीव गांधी सरकार ने मुस्लिम कट्टरपंथियों के विरोध के जवाब में 1986 में मुस्लिम महिला (तलाक पर अधिकारों का संरक्षण) कानून बनाया, जो सुप्रीम कोर्ट के फैसले को तुष्ट करता था। हम अन्य महत्वपूर्ण निर्णयों के बारे में जानेंगे जो मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों को मजबूत करते हैं।
गुलबाई बनाम नवरोजी मामला, 1963
मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों का एक केस गुलबाई मामला था। सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में मुस्लिम ला के तहत शादी की वैधता के लिए दिशानिर्देश निर्धारित किए थे। इस दिशानिर्देश में वैध निकाह समझौते के लिए आवश्यक बातें बताई गईं। सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में फैसला सुनाते हुए वैध शादी के लिए आवश्यक बातें बताईं, ताकि अवैध या बलपूर्वक शादी करके मुस्लिम महिलाओं को शोषण नहीं किया जा सके।
1997 में नूर सबा खातून का मामला
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि मुसलमान महिलाएं 1937 के मुस्लिम पर्सनल ला शरिया एप्लीकेशन एक्ट के तहत पैतृक संपत्ति में हिस्से का दावा कर सकती हैं। इस निर्णय ने मुस्लिम महिलाओं को आर्थिक शक्ति दी और उनकी संपत्ति का अधिकार (Muslims Property Rights) दिया।
2001 डेनियल लतीफी बनान
2001 में, डेनियल लतीफी बनाम भारत संघ मामले में, राजीव गांधी सरकार ने 1986 में बनाया गया मुस्लिम महिला (तलाक पर अधिकारों का संरक्षण) कानून को सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी गई। डेनियल एक अच्छे वकील थे। सुप्रीम कोर्ट में शाहबानो का प्रतिनिधित्व उन्होंने किया था।
सुप्रीम कोर्ट ने 1986 के कानून को इस तरह से समझाया कि यह एक तरह से अप्रभावी हो गया। कोर्ट ने अपने निर्णय में कहा कि महिलाओं के अधिकार इद्दत की अवधि के बाद भी जारी रहते हैं। कोर्ट के इस निर्णय ने मुस्लिम महिलाओं को गरिमापूर्ण जीवन जीने का अधिकार दिया।
2009 में मौलाना अब्दुल कादिर मदनी के खिलाफ मामला
2009 में सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट रूप से कहा कि धर्म का पालन करने का अधिकार दूसरों के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन नहीं करता है। यह विशेष रूप से लैंगिक समानता से संबंधित था। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि पर्सनल ला संवैधानिक अधिकारों के अनुरूप होना चाहिए।
2014 में असरफ खान बनाम शमीम बानो
2014 में, सुप्रीम कोर्ट ने शमीम बानो बनाम असरफ खान मामले में निर्णय दिया था कि मुसलमान महिलाएं तलाक के बाद भी अपने पति से भुजारा भत्ता पाने के लिए मजिस्ट्रेट की अदालत में आवेदन कर सकती हैं। फैसले में जोर दिया गया कि तलाकशुदा पत्नी के भविष्य के लिए मुस्लिम पति को गुजारा भत्ता सहित उचित व्यवस्था करनी चाहिए. यह इद्दत की अवधि से आगे भी लागू होता है।
2017: शायरा बानो का मामला
सुप्रीम कोर्ट ने ऐतिहासिक निर्णय में तीन तलाक को असंवैधानिक और अवैध ठहराया था। कोर्ट ने निर्णय (Supreme Court Decision) दिया कि मुस्लिम महिलाओं के मौलिक अधिकारों का तीन तलाक उल्लंघन करता है।
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